बारमेर समाचार: गडरारोड़। हर साल 2 अक्टूबर को हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (Gandhi Jayanti) और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती मनाते हैं। यह दिन हमें गांधी जी के आदर्शों को याद दिलाता है और यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम उनके सिद्धांतों को कितना अमल में ला रहे हैं।
शास्त्रीग्राम: एक सांस्कृतिक धरोहर
राजस्थान के बाड़मेर जिले का शास्त्रीग्राम, जो महान नेता लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर रखा गया है, एक ऐसा गांव है जहां के लोग सदियों से गांधी जी के चरखे के साथ बुनाई और कताई का कार्य करते आ रहे हैं। यहां की संस्कृति और परंपरा में खादी की बुनाई का अहम स्थान है। यह गांव उस समय की याद दिलाता है जब हर सुबह महिलाएं और पुरुष चरखों के पास बैठकर ऊन कातने और बुनाई का कार्य करते थे।
लेकिन, वर्षों से चली आ रही यह परंपरा अब संकट में है। वर्ष 2000 के बाद इस कार्य में कमी आ गई है, और अब गांव के बुनकर और कतवारिन बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं।
खादी कमीशन का उदय और पतन
गांव की इस स्थिति की जड़ें खादी कमीशन के इतिहास में छिपी हैं। 1964 में माणिक्यलाल वर्मा द्वारा स्थापित खादी कमीशन ने राजस्थान में खादी उद्योग को बढ़ावा देने का कार्य किया। बाड़मेर और जैसलमेर जिले में कई केंद्र खोले गए, जो स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का एक प्रमुख स्रोत बने।
लेकिन 1999 के बाद ये केंद्र एक-एक कर बंद होते गए। मुख्यालय बीकानेर में होने के कारण अधिकारियों की अनदेखी और अव्यवस्था ने यहां की खादी उद्योग को प्रभावित किया। परिणामस्वरूप, शास्त्रीग्राम सहित 16 केंद्र बंद हो गए, जिससे रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत समाप्त हो गया।
बेरोजगारी की मार
शास्त्रीग्राम की महिलाएं, जो कभी ऊन कातने में पारंगत थीं, अब हाथ में तगारी उठाकर रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रही हैं। सुरभी देवी, जो एक कतवारिन हैं, कहती हैं, “पहले काम करते ही पैसा मिलता था। अब तगारी उठानी पड़ती है। भरी दुपहरी में औरतें तगारी उठाकर किसी तरह से रोजगार पाती हैं।” उनकी बातें सुनकर यह महसूस होता है कि रोजगार का संकट केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है।
महिलाओं का संघर्ष
गांव की महिलाएं हमेशा से अपने परिवार का सहारा रही हैं। वे दिन-रात मेहनत करके न केवल अपने परिवार को संभालती थीं, बल्कि अपनी संस्कृति और परंपराओं को भी संजोए रखती थीं। लेकिन आज वे उस कार्य में भी असमर्थ हैं, जिसके लिए उन्हें गर्व होता था।
यहां की महिलाएं, जैसे कि सुरभी देवी, अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार के अन्य खर्चों के लिए तगारी उठाने को मजबूर हैं। वे कहती हैं, “अगर हमें कोई काम नहीं मिलता, तो हम कैसे जी पाएंगे?” उनकी आँखों में छुपा संघर्ष और निराशा सुनकर दिल भर आता है।
गांधी जी का सपना: स्वावलंबन
महात्मा गांधी का सपना था कि लोग आत्मनिर्भर बनें। उनके अनुसार, हर व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता होनी चाहिए। आज इस गांव के बुनकर और कतवारिन इस सपने से दूर होते जा रहे हैं। यह केवल एक गांव की कहानी नहीं है, बल्कि एक बड़ी सच्चाई है, जो हमारे देश के कई हिस्सों में देखने को मिलती है।
क्या कर सकते हैं हम?
गांधी जयंती का यह अवसर हमें याद दिलाता है कि हमें उन मूल्यों को पुनर्जीवित करना होगा, जिनके लिए महात्मा गांधी ने संघर्ष किया। हमें उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है।
क्या हम इन बुनकरों और कतवारिनों के हक के लिए आवाज उठा सकते हैं? क्या हम उनकी स्थितियों को सुधारने के लिए कुछ कर सकते हैं? यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन्हें पुनः उनकी पहचान दिलाने का प्रयास करें।
निष्कर्ष
गांधी जयंती का यह अवसर हमें प्रेरित करता है कि हम उन लोगों के लिए खड़े हों, जो अब भी गांधी जी के सपनों को जीते हैं। आइए, हम सब मिलकर इस गांव के बुनकरों और कतवारिनों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने का संकल्प लें। क्योंकि असली सम्मान गांधी जी को तब होगा जब हम उनके सिद्धांतों को अमल में लाएं और उन्हें पुनः रोजगार और आत्मनिर्भरता का अवसर दें।
इस लेख के माध्यम से हम एक सामाजिक मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। यदि आपको इसमें और अधिक जानकारी या किसी विशेष बात को जोड़ने की आवश्यकता हो, तो बताएं!
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