आपने कभी न कभी अरुणिमा सिन्हा (Arunima Sinha) का नाम सुना होगा, लेकिन क्या आप उनकी पूरी कहानी जानते हैं? वह नाम जिसने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवा ली। अरुणिमा एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने अपने अटूट हौसले और जज्बे से असंभव को संभव कर दिखाया। माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) जैसी कठोर चोटी को एक पैर पर फतह कर, उन्होंने न सिर्फ अपने सपनों को पंख दिए, बल्कि लाखों लोगों के लिए प्रेरणा की मिसाल भी बन गईं।
अरुणिमा को एक दुर्घटना में अपना एक पैर खोना पड़ा, लेकिन उनके हौसले ने कभी हार नहीं मानी। भारत की पहली दिव्यांग पर्वतारोही के रूप में उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि मुश्किलें चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, अगर इरादे मजबूत हों तो हर बाधा पार की जा सकती है। उनके संघर्ष और साहस ने न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया को प्रेरित किया है।
आइए, इस लेख में उनके जीवन के कुछ प्रमुख पड़ावों पर नजर डालते हैं और उनके अपने शब्दों में उनकी अद्वितीय यात्रा को समझते हैं, जो हमें हिम्मत और उम्मीद की नई राह दिखाती है।
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Arunima Sinha Biography In Hindi – अरुणिमा सिन्हा का जीवन परिचय
अरुणिमा सिन्हा: साहस और संकल्प की मिसाल
पूरा नाम: अरुणिमा सिन्हा
जन्म: 20 जुलाई 1988
उम्र: 33 साल (2021)
जन्म स्थान: अंबेडकर नगर, उत्तर प्रदेश
पति का नाम: गौरव सिंह
धर्म: हिन्दू
शिक्षा: नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग से पर्वतारोहण में कोर्स
पहचान: अरुणिमा सिन्हा एक ऐसी भारतीय हैं जिन्होंने साहस और दृढ़ संकल्प के दम पर इतिहास रच दिया। विकलांगता को चुनौती देते हुए, अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई कर यह साबित कर दिया कि सपनों के सामने कोई भी मुश्किल बड़ी नहीं होती। वे पहली दिव्यांग भारतीय महिला हैं जिन्होंने यह गौरव हासिल किया।
जाति: कायस्थ
पेशा: पर्वतारोही और वॉलीबॉल खिलाड़ी
नागरिकता: भारतीय
सम्मान और पुरस्कार: अरुणिमा की अदम्य साहसिक यात्रा को देशभर में सराहा गया है। उन्हें पद्म श्री (2015), तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार (2015), प्रथम महिला पुरस्कार (2016), मलाला पुरस्कार, यश भारती पुरस्कार, और रानी लक्ष्मी बाई पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है। उनकी कहानी हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
Arunima Sinha Born And Family
अरुणिमा सिन्हा का जन्म 20 जुलाई 1988 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के अम्बेडकर नगर में हुआ था। उनके परिवार के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि उनके बचपन की परवरिश उनके रिश्तेदारों के साथ हुई थी। कुछ मान्यताओं के अनुसार, अरुणिमा के पिता भारतीय सेना में इंजीनियर थे और उनकी मां हेल्थ विभाग में सुपरवाइजर के पद पर कार्यरत थीं। जब अरुणिमा सिर्फ 3 साल की थीं, तब उनके पिता का निधन हो गया, जिसने उनके जीवन को नए संघर्षों और चुनौतियों से भर दिया।
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Arunima Sinha Education
अरुणिमा सिन्हा की कहानी हिम्मत और जुनून की मिसाल है। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर में पूरी की, लेकिन उनकी मंजिल यहीं तक सीमित नहीं थी। अपने सपनों को ऊंचाइयों तक पहुंचाने के लिए, उन्होंने उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग से माउंटेनियरिंग का कोर्स किया। अरुणिमा के दिल में पर्वतारोहण और वॉलीबॉल के लिए गहरा जुनून था। पर्वतों की ऊंचाईयों को छूने की उनकी चाहत जितनी गहरी थी, उतनी ही मजबूत थी वॉलीबॉल कोर्ट पर उनकी पकड़। इन दोनों खेलों ने उन्हें साहस और नई ऊर्जा से भर दिया, और उनके जीवन को एक नई दिशा दी।
Arunima Sinha Journey Of Mount Everest
इस दिल दहला देने वाली ट्रेन दुर्घटना में अरुणिमा ने अपना एक पैर खो दिया, लेकिन उनकी आत्मा ने हार नहीं मानी। इससे पहले, वह एक राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल चैंपियन थीं, जो हमेशा जीत की ऊँचाईयों को छूने का सपना देखती थीं। इस दुखद घटना ने उन्हें न केवल शारीरिक रूप से कमजोर किया, बल्कि उनके सपनों पर भी गहरा असर डाला। डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने और खेल से दूरी बनाने की सलाह दी, लेकिन अरुणिमा का जज्बा कुछ और ही था।

उन्होंने ठान लिया कि वह लाचार नहीं होंगी, बल्कि एक मिसाल बनकर दिखाएँगी। “मैं अपने पैरों पर खड़ी होंगी, किसी पर बोझ नहीं बनूँगी!” उन्होंने यह नारा अपने दिल में उतार लिया। दिल्ली के AIIMS में चार महीने की कठिनाई के बाद, जब उन्हें छुट्टी मिली, तब उनका एक पैर कृतिम पैर से बदल दिया गया और दूसरे में एक रोड लगी थी।
बाहर आकर, उन्हें एक संगठन ने कृतिम पैर दिए, और अपनी यात्रा शुरू करने के लिए वह जमशेदपुर गईं। वहां उन्होंने बछेंद्री पाल से मुलाकात की, जो पर्वतारोही की दुनिया की एक जीवित किंवदंती थीं। उन्होंने अरुणिमा से कहा, “तूने इस स्थिति में जो सपना देखा है, वो सच हो सकता है। अब तुझे बस खुद को साबित करना है!” बछेंद्री पाल की प्रेरणा से अरुणिमा ने कड़ी मेहनत की और अपना सपना पूरा करने की राह पर बढ़ने लगीं।
31 मार्च 2013 को, माउंट एवरेस्ट के लिए उनकी यात्रा शुरू हुई। चढ़ाई करते समय, शेरपा ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन अरुणिमा ने उन्हें यकीन दिलाया कि वह बिना किसी खतरे के यह चढ़ाई कर सकती हैं।
उनकी टीम में कुल 6 सदस्य थे। शुरू में, अरुणिमा आगे बढ़ती रहीं, लेकिन जैसे ही वह ग्रीन और ब्लू बर्फ पर पहुँचीं, उनके आर्टिफिशियल पैर ने साथ छोड़ना शुरू कर दिया। फिसलन के कारण आगे बढ़ना कठिन हो गया, लेकिन उनकी हार न मानने की भावना ने उन्हें आगे बढ़ाया। बार-बार गिरने के बाद भी, उन्होंने बर्फ के टुकड़े हटाकर अपने पैरों को मजबूत किया।
कैंप 3 तक पहुँचने के बाद, साउथ कोल सबमिट की चुनौती सामने थी, जहाँ अनुभवी पर्वतारोही भी हार मान लेते हैं। अरुणिमा रात में चढ़ाई करतीं क्योंकि उस समय मौसम शांत होता था। एक बांग्लादेशी पर्वतारोही के दर्द भरे चीखने की आवाज सुनकर वह थोड़ी डर गईं, लेकिन उन्होंने डर को दरकिनार करते हुए अपनी हिम्मत बनाए रखी।
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एक बार जब शेरपा ने बताया कि उनका ऑक्सीजन खत्म हो रहा है, तो उन्होंने न केवल वापसी करने से मना किया, बल्कि अपने हौसले से आगे बढ़ती रहीं। और आखिरकार, 21 मई 2013 को, उन्होंने 52 दिनों की कठिन यात्रा के बाद माउंट एवरेस्ट की चोटी पर अपना तिरंगा फहराया। इस तरह, अरुणिमा सिन्हा बन गईं माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पहली विकलांग महिला पर्वतारोही, एक प्रेरणा जो साबित करती है कि असंभव कुछ भी नहीं। उनकी कहानी न केवल साहस की मिसाल है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाती है कि असफलताएँ हमें नहीं रोक सकतीं, बल्कि हमें और मजबूत बना सकती हैं।
बचपन से ही जुनून भरा सफर
1989 में उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में जन्मी अरुणिमा सिन्हा बचपन से ही खुशमिजाज और खेलों में गहरी रुचि रखने वाली लड़की थीं। वॉलीबॉल में उनकी रुचि इतनी गहरी थी कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर खेलते हुए सबका ध्यान खींचा। एक ऐसी खिलाड़ी जो हर पल नई ऊंचाइयों की ओर देखती थी।
एक हादसा जो बदल गया प्रेरणा में
2011 में अरुणिमा की जिंदगी में एक भयानक मोड़ आया जिसने उन्हें कमजोर नहीं, बल्कि और मजबूत बनाया। लखनऊ से दिल्ली जा रही पद्मावती एक्सप्रेस ट्रेन में कुछ बदमाशों ने उनसे सामान छीनने की कोशिश की, और विरोध करने पर उन्हें चलती ट्रेन से धक्का दे दिया। इस हादसे में उनका एक पैर घुटने से नीचे कट गया, पर उनके सपनों की उड़ान को यह हादसा नहीं रोक सका।
दर्द से नई उम्मीद तक का सफर
इस हादसे के बाद जब उन्होंने अपनी जिंदगी को लेकर सोचना शुरू किया, तो उनके मन में एक सपना जन्मा—दुनिया की सबसे ऊंची चोटी, माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) को फतह करने का। आसान नहीं था यह सफर, लेकिन उनके जज्बे ने इस सपने को हकीकत में बदलने का ठान लिया।
बछेंद्री पाल से मुलाकात: नए सफर की शुरुआत
इलाज के बाद, जब अरुणिमा जमशेदपुर में पर्वतारोही बछेंद्री पाल से मिलीं, तो उनके जीवन में एक नई राह दिखाई दी। बछेंद्री पाल ने उन्हें प्रोत्साहित किया और कहा, “तेरा सपना अब तेरा लक्ष्य है और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए तुझे किसी भी हालत में हार नहीं माननी।” बस, यहीं से अरुणिमा के सपने को पंख मिल गए और उन्होंने अपनी नई जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का फैसला किया।
कठिन प्रशिक्षण: पहाड़ों से दोस्ती का सफर
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने का सपना पूरा करने के लिए अरुणिमा ने नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग में दाखिला लिया। आर्टिफिशियल पैर के साथ पहाड़ों पर चढ़ना असंभव सा काम था, पर उन्होंने यह साबित कर दिया कि हौसला मजबूत हो तो कोई भी मंजिल दूर नहीं।
माउंट एवरेस्ट पर जीत का तिरंगा
अरुणिमा के इस साहसिक सफर की सबसे बड़ी उपलब्धि 21 मई 2013 को आई, जब उन्होंने माउंट एवरेस्ट पर 52 दिनों की कठिन चढ़ाई के बाद तिरंगा फहराया और दुनिया को दिखाया कि असंभव कुछ भी नहीं। वह दुनिया की पहली एकपैड विकलांग महिला बनीं, जिन्होंने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ाई की।
विजय का सिलसिला: हर चोटी पर फहराया जीत का झंडा
माउंट एवरेस्ट के बाद अरुणिमा ने विजय का सफर जारी रखा। उन्होंने माउंट विंसन (दक्षिण अमेरिका की सबसे ऊंची चोटी), यूरोप की माउंट एल्ब्रस, और ओशनिया की माउंट कोसियुस्को पर भी सफलतापूर्वक चढ़ाई की।
समाज के प्रति योगदान: अरुणिमा सिन्हा इंफिनिटी आर्मी
अपने इस सफर से अरुणिमा ने केवल अपने सपनों को ही नहीं बल्कि समाज की उम्मीदों को भी उड़ान दी। उन्होंने “अरुणिमा सिन्हा इंफिनिटी आर्मी” नामक फाउंडेशन की स्थापना की, जो समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सहायता कार्य करती है। उनकी आत्मकथा “Be My Inspiration” के माध्यम से उन्होंने दुनिया को यह संदेश दिया कि अगर आपके इरादे मजबूत हैं तो कोई भी मुश्किल आपको रोक नहीं सकती।
सम्मान और प्रेरणा का प्रतीक
अरुणिमा की हिम्मत और साहस को सलाम करते हुए उन्हें कई सम्मान प्राप्त हुए। उन्होंने न सिर्फ अपने राज्य, बल्कि पूरे भारत का मान बढ़ाया और लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।